धारा ९२ : लोक पूर्त कार्य :
सिविल प्रक्रिया संहिता १९०८
धारा ९२ :
१.(लोक पूर्त कार्य :
१) पूर्त या धार्मिक प्रकृति के लोक प्रयोजनों के लिए सृष्ट किसी अभिव्यक्त या आन्वयिक न्यास के किसी अभिकथित भंग के मामले में, या जहां ऐसे किसी न्यास के प्रशासन के लिए न्यायालय का निदेश आवश्यक समझा जाता है वहां महाधिवक्ता या न्यास में हित रखने वाले ऐसे दो या अधिक व्यक्ति, जिन्होंने २.(न्यायालय की इजाजत) अभिप्राप्त कर ली है, ऐसा वाद, चाहे वह प्रतिरोधात्मक हो या नहीं, आरम्भिक अधिकारिता वाले प्रधान सिविल न्यायालय में या राज्य सरकार द्वारा इस निमित्त सशक्त किए गए किसी अन्य न्यायालय में जिसकी अधिकारिता की स्थानीय सीमाओं के भीतर न्यास की सम्पूर्ण विषय-वस्तु या उसका कोई भाग स्थित है, निम्नलिखित डिक्री अभिप्राप्त करने के लिए संस्थित कर सकेंगे -
क) किसी न्यासी को हटाने की डिक्री ;
ख) नए न्यासी को नियुक्त करने की डिक्री ;
ग) न्यासी में किसी सम्पत्ति को निहित करने की डिक्री ;
३.(गग) ऐसे न्यासी को जो हटाया जा चुका है या ऐसे व्यक्ति को जो न्यासी नहीं रह गया है, अपने कब्जे में की किसी न्यास-सम्पत्ति का कब्जा उस व्यक्ति को जो उस सम्पत्ति के कब्जे का हकदार है, परिदत्त करने का निदेश देने की डिक्री ;)
घ) लेखाओं और जांचो को निर्दिष्ट करने की डिक्री ;
ङ) यह घोषणा करने की डिक्री कि न्यास-सम्पत्ति का या उसमें के हित का कौन सा अनुपात न्यास के किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए आबंटित होगा ;
च) सम्पूर्ण न्यास-सम्पत्ति या उसके किसी भाग का पट्टे पर उठाया जाना, विक्रय किया जाना, बन्धक किया जाना या विनिमय किया जाना प्राधिकृत करने की डिक्री ;
छ) स्कीम स्थिर करने की डिक्री ; अथवा
ज) ऐसा अतिरिक्त या अन्य अनुतोष अनुदत्त करने की डिक्री जो मामले की प्रकृति से अपेक्षित हो ।
२) उसके सिवाय जैसा धार्मिक विन्यास अधिनियम, १८६३(१८६३ का २०) द्वारा ४.(या ५.(उन राज्यक्षेत्रों) में, ५.(जो १ नवम्बर १९५६ के ठीक पूर्व भाग घ राज्यों में समाविष्ट,) थे प्रवृत्त तत्समान किसी विधि द्वारा) उपबन्धित है, उपधारा (१) में विनिर्दिष्ट अनुतोषों में से किसी के लिए दावा करने वाला कोई भी वाद ऐसे किसी न्यास के सम्बन्ध में जो उसमें निर्दिष्ट है, उस उपधारा के उपबन्धों के अनुरुप ही संस्थित किया जाएगा, अन्यथा नहीं ।
६.(३) न्यायालय, पूर्त या धार्मिक प्रकृति के लोक प्रयोजनों के लिए सृष्ट किसी अभिव्यक्त या आन्वयिक या आन्वयिक न्यास के मूल प्रयोजनों में परिवर्तन कर सकेगा और ऐसे न्यास की सम्पत्ति या आय को अथवा उसके किसी भाग को निम्नलिखित में से एक या अधिक परिस्थितियों में समान उद्देश्य के लिए उपयोजित कर सकेगा, अर्थात् :-
क) जहां न्यास के मूल प्रयोजन पूर्णत: या भागत:,-
एक) जहां तक हो सके पूरे हो गए है, अथवा
दो) क्रियान्वित किए ही नहीं जा सकते है या न्यास को सृष्ट करने वाले लिखत में दिए गए निदेशों के अनुसार या जहां ऐसी कोई लिखत नहीं है वहां, न्यास की भावना के अनुसार क्रियान्वित नहीं किए जा सकते है, अथवा
ख) जहां न्यास के मूल प्रयोजनों में, न्यास के आधार पर उपलब्ध सम्पत्ति के केवल एक भाग के उपयोग के लिए ही उपबन्ध है ; अथवा
ग) जहां न्यास के आधार पर उपलब्ध सम्पत्ति और समान प्रयोजन के लिए उपयोजित की जा सकने वाली अन्य सम्पत्ति न्यास की भावना और सामान्य प्रयोजनों के लिए उसके उपयोजन को ध्यान में रखते हुए, किसी अन्य प्रयोजन के साथ-साथ अधिक प्रभावी ढंग से उपयोग किया जा सकता है और वह उस उद्देश्य से किसी अन्य प्रयोजन के लिए उपयुक्त रीति से उपयोजित की जा सकती है ; अथवा
घ) जहां मूल प्रयोजन पूर्णत: या भागत:, किसी ऐसे क्षेत्र के बारे में बनाए गए थे जो ऐसे प्रयोजनों के लिए उस समय एक इकाई था किन्तु अब नहीं रह गया है ; अथवा
ङ) जहां, -
एक) मूल प्रयोजनों को बनाए जाने के पश्चात्, पूर्णत: या भागत:, अन्य साधनों से पर्याप्त रुप से व्यवस्था कर दी है ; अथवा
दो) मूल प्रयोजन बनाए जाने के पश्चात्, पर्णत: या भागत:, समाज के लिए अनुपयोगी या अपहारनिकर होने के कारण समाप्त हो गए है ; अथवा
तीन) मूल प्रयोजन बनाए जाने के पश्चात् पूर्णत: या भागत:, विधि के अनुसार पूर्त नहीं रह गए है ; अथवा
चार) मूल प्रयोजन बनाए जाने के पश्चात्, पर्णत: या भागत:, न्यास की भावना को ध्यान में रखते हुए, न्यास के आधार पर उपलब्ध सम्पत्ति के उपयुक्त और प्रभावी उपयोग के लिए किसी अन्य रीति से उपबन्ध नहीं करते है ।)
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१. धारा ९२ बिहार के किसी धार्मिक न्यास को लागू नहीं होगी, देखिए १९५१ का बिहार अधिनियम सं. १ ।
२. १९७६ के अधिनियम सं. १०४ की धारा ३१ द्वारा (१-२-१९७७ से) महाधिवक्ता की विशिष्ट सम्मति के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
३. १९५६ के अधिनियम सं. ६६ की धारा ९ द्वारा अन्त:स्थापित ।
४. १९५१ के अधिनियम सं. ३ की धारा १३ द्वारा अन्त:स्थापित ।
५. विधि अनुकूलन (सं. २) आदेश, १९५६ द्वारा भाग ख राज्य के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
६. १९७६ के अधिनियम सं. १०४ की धारा ३१ द्वारा (१-२-१९७७ से) अन्त:स्थापित ।
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