सिविल प्रक्रिया संहिता १९०८
आदेश २३ :
नियम ३ :
वाद में समझौता :
जहां न्यायालय को समाधानप्रद रुप में यह साबित कर दिया जाता है कि वाद १.(पक्षकारों द्वारा लिखित और हस्ताक्षरित किसी विधिपूर्ण करार या समझौते के द्वारा) पूर्णत: या भागत: समायोजित किया जा चुका है या जहां प्रतिवादी वाद की पूरी विषय-वस्तु के या उसके किसी भाग के सम्बन्ध में वादी की तुष्टि कर देता है वहां न्यायालय ऐसे करार, समझौते या तुष्टि के अभिलिखित किए जाने का आदेश करेगा और १.(जहां तक कि वह वाद के पक्षकारों से सम्बन्धित है, चाहे करार, समझौते या तुष्टि की विषय-वस्तु वही हो या न हो जो कि वाद की विषय-वस्तु है वहां तक तद्नुसार डिक्री पारित करेगा :)
२.(परन्तु जहां एक पक्षकार द्वारा यह अभिकथन किया जाता है और दूसरे पक्षकार द्वारा यह इन्कार किया जाता है कि कोई समायोजन या तुष्टि तय हुई थी वहां न्यायालय इस प्रश्न का विनिश्चय करेगा, किन्तु इस प्रश्न के विनिश्चय के प्रयोजन के लिए किसी स्थगन की मंजूरी तब तक नहीं दी जाएगी जब तक कि न्यायालय, ऐसे कारणों से जो लेखबद्ध किए जाएंगे, ऐसा स्थगन मंजूर करना ठीक न समझे ।)
२.(स्पष्टीकरण :
कोई ऐसा करार या समझौता जो भारतीय संविदा अधिनियम १८७२ (१८७२ का ९) के अधीन शून्य या शून्यकरणीय है, इस नियम के अर्थ में विधिपूर्ण नहीं समझा जाएगा ।)
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१. १९७६ के अधिनियम सं. १०४ की धारा ७४ द्वारा (१-२-१९७७ से) कतिपय शब्दों के स्थान पर प्रतिस्थापित ।
२. १९७६ के अधिनियम सं. १०४ की धारा ७४ द्वारा (१-२-१९७७ से) अन्त:स्थापित ।
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